Tuesday 12 July 2011

तुम कंपनी के आदमी हो ….!

सुनील शर्मा 
...मेरी जशपुर यात्रा (भाग एक)

'' तुम कंपनी के आदमी हो , किस कंपनी के, यहां से चले जाओ,किसी से कुछ पूछने की जरूरत नहीं है,नहीं तो ठीक नहीं होगा.''
उस बुजुर्ग की बात में कंपनियों के खिलाफ आक्रोश था.मैं थोड़ी देर के लिए जैसे डर गया. तत्काल तो जैसे मेरी समझ में ही नहीं आया कि बुजुर्ग की बातों का मैं क्या जवाब दूं. इतने में बुजुर्ग के पास ही खड़ा युवक जैसे गुर्राया, '' तुम बताते हो कि हम...'' अब तो जैसे सवालों का जवाब देना जरूरी हो गया नहीं तो जान पर भी बन सकती थी. मैंने शांत स्वर में कहा—''मैं पत्रकार हूं, किसी कंपनी का आदमी नहीं, मैं यहां आप लोगों की स्थिति देखने आया हूं, आप लोगों से बातचीत करने.''
मेरी इस बात से बुजुर्ग और युवक का गुस्सा थोड़ा कम हुआ पर खत्म नहीं. इतने में ही एक महिला बोल पड़ी—''बाबू, क्या करोगे हमारा दुख दर्द जानकर,अखबार में छापोगे और दुनिया में हमारी हंसी कराओगे,हमारी बेटियां तो भाग ही रही थी अब बारी हमारे भागने की है.'' मैंने महसूस किया उसकी बातों में दर्द था. वह बहुत दुखी जान पड़ी और उसके कृशकाय काया पर लिपटी पुरानी और मटमैली साड़ी उसके गरीब होने की गवाही दे रहे थे. उसका नाम पर सिबलिया कुजूर था.
बिलासपुर में ''रविवार'' के दफ्तर में बैठकर मैंने शायद कभी इस बात की कल्पना भी नहीं की थी जीवन का एक दृश्य ऐसा भी हो सकता है. जशपुर में लोग भय और आशंका के बीच अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
गांव में ही क्या जंगल में अगर कोई नया आदमी दिख जाए तो उन्हें यहीं लगता है कि वह जरूर किसी कंपनी का आदमी होगा. वे उनसे कुछ ऐसा ही सवाल करते हैं जैसे उन्होंने मुझसे किया था. वे उस आदमी से तब तक सवाल करते हैं जब तक की स्वयं संतुष्ट नहीं हो जाते. इससे निश्चित तौर पर उस आदमी को असुविधा होती है लेकिन उसकी तकलीफ ग्रामीणों की समस्या के सामने तिलभर भी नहीं है.आखिर इन्हें इस तरह के सवाल करने की जरूरत क्या है ?
यह सवाल मेरे दिमाग में भी कौंधा ? पर एक सप्ताह के प्रवास के कुछ ही घंटे में मुझे अपने इस सवाल का जवाब मिल गया और मैं जैसे हमेशा के लिए उनके सवालों का पक्षकार बन गया.
मन में प्रश्न जिज्ञासा की वजह से भी उठते है और डर और आशंका के कारण भी. जशपुर के आदिवासियों के मन में उठने वाला हर सवाल डर और आशंका के कारण है. हर पल उन्हें बस एक ही बात का डर है वह है जमीन छीन जाने का, उन्हें अपनी जान की परवाह उतनी नहीं है जितनी जंगल के कट जाने की है. जब से कंपनियों की धमक वहां हुई है जैसे नीरव घाटियों में एक धमाका हो गया है.साल और सरई के पेड़ मुरझाने लगे है और कोयल के कूक में वह बात नहीं रही. 
ईब की पहले से ही पतली हो चुकी धार छितरने लगी है और कुनकुरी के ईस्टर की घंटियों का नाद थम सा गया है. यह सब हुआ है जशपुर की जमीन पर 112 कंपनियों के आने की खबर से. जिस जशपुर को प्रकृति ने अपने हाथों से सवांरा था उसी जशपुर में सरहुल के मांदरों की थाप थमने लगी है. मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने इस जिले को ग्रीनबेल्ट घोषित किया था लेकिन अब जैसे इसकी ग्रीनरी ( हरियाली ) पर ही ग्रहण लगने जा रहा है. इसकी शुरुआत भी हो चुकी है. पेड़ कटने लगे है और आदिवासियों के चेहरे पर चिंता की लकीर और लंबी होती जा रही है.
नेशनल फाउंडेशन फार इंडिया की मीडिया फेलोशिप मिलने के बाद मैंने सबसे पहले जशपुर जाने का मन बनाया. हालांकि मैंने इस विषय में पहले विचार नहीं किया था लेकिन आलोक भैया ( पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल ) के सुझाव पर मैं जशपुर में जमीन अधिग्रहण के मुद्दे पर रिपोर्ट बनाने चला गया.
अप्रैल का महीना था  वह, काफी गर्मी पड़ रही थी. तारकोल की सड़के इतनी गरम हो जाती थी कि दूर से सड़क को देखने पर लगता था कि वे जल रही है और उस पर चलने वालों को भस्म कर देगी.
सात तारीख को मैंने बस से अपनी यात्रा शुरू की हालांकि इसके अलावा और मेरे पास कोई चारा भी नहीं था क्योंकि ट्रेन वहां जाती नहीं और मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं प्राइवेट कार से जशपुर जाता. खैर रात को साढ़े नौ बजे राजहंस (ट्रेवल्स एजेंसी का नाम ) की बस में बैठकर मैं जशपुर के लिए रवाना हो गया. हालांकि मैं वहां पहली बार नहीं जा रहा था पर फिर भी मेरे मन में जशपुर को लेकर उत्सुकता तो थी. शायद आदिवासियों पर रिपोर्ट करने के लिए जाने की वजह से. बस में लंबी यात्रा का अनुभव मेरे पास नहीं था सो इसे लेकर मैं थोड़ा रोमांचित भी था और मैं डर भी रहा था कि मुझे कहीं उल्टियां न हो जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
हालांकि मैंने इसे लेकर एहतियात भी बरता और रात को जब ड्राइवर ने यात्रियों के खाना खाने के लिए पत्थलगांव के एक ढाबे के सामने बस रोकी तो मैंने खाना नहीं खाया. हां, चाय जरूर पी, ढाबे की चाय थोड़ी अलग थी पर अच्छी भी लगी. मुझे लगा जैसे महुआ की भीनी गंध ने चाय में घुलकर इसके स्वाद को बदल दिया है. 45 मिनट बाद एक बार फिर बस तेज गति से रात के सन्नाटे को चीरते हुए आगे बढ़ने लगी और मैं चाहकर भी सो न सका. खिड़की के बाहर अंधेरे के कारण भले ही कुछ दिखाई नहीं दे रहा था पर उस अंधेरे को देखना भी मुझे शुकुन पहुंचा रहा था.
एक—दो छोटी झपकियां को छोड़ दूं तो मैं पूरी रात जागता रहा, चूंकि मुझे कुनकुरी उतरना था इसलिए मैं सुबह साढ़े पाच बजे कुनकुरी उतर गया और इसके साथ मेरे लिए अनजान मेरे सहयात्री विदा हो गए. हालांकि ऐसा पहली बार हुआ जब पूरी यात्रा के दौरान कंडक्टर को छोड़कर मुझसे और मैंने किसी से कोई बात नहीं की. शायद मैं उस रात स्वार्थी हो गया था और अपनी खुशी किसी के साथ बांटना नहीं चाहता था, मुझे यह भी नहीं पता था कि मेरे मन के एक कोने से प्रकृति की समीपता को लेकर उठने वाली खुशी को कोई समझ पाएगा  भी या नहीं, कम से कम उस बस में तो मुझे ऐसा कोई व्यक्ति नहीं दिखा. मैं सबके साथ रहकर भी खुद को एकाकी महसुस कर पा रहा था.
खैर कुनकुरी के बस स्टैंड में सबसे पहले मैंने चाय पी और अब मैं सोचने लगा कि सुबह होने में काफी समय है क्या किया जाए? थोड़ी ही देर बाद मेरा क्या किया जाए के सवाल का उत्तर मिल गया. एक पंद्रह साल का लड़का साइकिल में कुछ अखबार लेकर पहुंचा, मैंने तीन रुपए देकर उससे जागरण खरीद ली जो कि वहां रांची से छपकर आता था. उसमें बहुत सारी खबरे थी लेकिन एक खबर अन्ना हजारे को लेकर भी थी, 
मैं इसे पढ़ता रहा और काफी देर तक अन्ना के विषय में सोचता रहा. इसके बाद एक चाय और पी गई और उतने में ही सूरज देवता ने अस्ताचल की ओट छोड़कर दुनियादारी से खुद को जोड़ लिया. जशुपर की धरमी पर सूरज की पहली किरण ने जैसे मेरा स्वागत किया और मेरा मन प्रसन्न हो गया. रात में बस की थकान भूलकर मैं थोड़ी देर तक सूरज की लालिमा के दर्शन करता रहा.
​क्रमश:...

1 comment:

  1. बहुत बढ़िया शैली। भाषा सहज। अच्छा प्रवाह। सीधे भीतर उतरती हुई बातें। बहुत बहुत बधाई।

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