Sunday 14 August 2011

आदिवासी का असली संकट क्या है ?



सुनील शर्मा

देश में आदिवासियों के लिये सबसे बड़ी परेशानी की वजह क्या है ? इस बात के ढ़ेरों जवाब हो सकते हैं लेकिन आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ, झारखंड और ओडीशा के आदिवासियों की हालत देखें तो इसका सीधा जवाब मिलता है- जल, जंगल और ज़मीन. आज़ादी के बाद से लगातार जल, जंगल और ज़मीन के कारण उन्हें बार-बार विस्थापित होना पड़ा है और भला अनचाहे विस्थापन से बड़ा दर्द क्या हो सकता है ?

देश में लगभग 11 करोड़ आदिवासियों की आबादी है और विभिन्न आंकड़ों की मानें तो हर दसवां आदिवासी अपनी ज़मीन से विस्थापित है. पिछले एक दशक में ही आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ, झारखंड और उडीसा में जो 14 लाख लोग विस्थापित हुये, उनमें 79 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है. दुर्भाग्यजनक ये है कि आदिवासियों के विस्थापन का यह सिलसिला अनवरत जारी है.
अब छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले को ही लें. लगभग 70 फीसदी आदिवासी आबादी वाले इस जिले में 112 उद्योगों की स्थापना के लिए 6023 वर्ग किलोमीटर जमीन की मांग की गई है, जबकि ज़िले का कुल क्षेत्रफल 6205 वर्ग किलोमीटर है.
                                                                 
छत्तीसगढ़ का इतिहास जितना प्राचीन है, उतने ही प्राचीन आदिवासी भी है. छत्तीसगढ़ की पहचान उसके जंगल और आदिवासियों के लिए है. पर पिछले कुछ वर्षों में इस्पात, लोहा संयंत्र और खनन परियोजना ने आदिवासियों का जीवन संकट में डाल दिया है. बस्तर, दंतेवाड़ा जिलों में जहां नक्सलवाद के कारण आदिवासियों का जीवन दूभर हो गया है, तो सरगुजा और जशपुर जिले में खनिज संसाधनों का दोहन और सरकारी उपेक्षा आदिवासी समाज के लिए खतरा बन चुका है.

हालत ये है कि राज्य के जशपुर जिले में बसने वाली असुर जाति की जनसंख्या केवल दो सौ पच्चासी (305) रह गई है. असुर जनजाति पूरे छत्तीसगढ़ में जशपुर और सरगुजा जिले में ही निवास करती है.
पूर्व में असुर वनों पर पूरी तरह आश्रित थे और पत्थरों को गलाकर लोहा बनाते थे. पत्थरों को गलाकर लोहा बनाने वाली ये विशेष पिछड़ी जनजाति अब विलुप्ति के कगार पर है. नई तकनीक के आ जाने के कारण इनके परंपरागत व्यवसाय पर ग्रहण लग चुका है और किसी और काम में कुशलता नहीं होने से इनके सामने रोजगार का संकट आ खड़ा हुआ है.
आश्चर्यजनक है कि असुर जनजाति के संरक्षण एवं संवर्धन की दिशा में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है. अविभाजित मध्यप्रदेश में दूसरी जनजातियों के लिये करोड़ों रुपये की योजनायें चलायी गईं लेकिन असुर जनजाति इन सारी योजनाओं से दूर ही रखी गई.

छत्तीसगढ़ राज्य में 5 विशेष पिछड़ी जनजातियों अबूझमाड़िया, कमार, पहाड़ी कोरबा, बिरहोर एवं बैगा के विकास के लिये विशेष अभिकरण का गठन किया गया है. असुर जनजाति को तो इस अभिकरण में शामिल ही नहीं किया गया है, लेकिन इस अभिकरण में शामिल बिरहोर जनजाति तमाम सरकारी दावों के बाद भी खत्म होती जा रही है. छत्तीसगढ़ में आज इनकी संख्या केवल 401 रह गई है. पहाड़ी कोरवा जनजाति की संख्या भी पिछले कुछ सालों में घटते-घटते 10,825 रह गई है.
असुर और बिरहोर जनजातियों के साथ एक बड़ा संकट ये भी है कि जंगल के इलाकों में रहने के कारण आम तौर पर सरकार संचालित योजनायें इन तक नहीं पहुंच पाती. केंद्र और राज्य सरकार की रोजगार गारंटी योजना सहित दूसरी योजनाओं से ये आदिवासी पूरी तरह से दूर हैं. जंगलों में भोजन की उपलब्धता के कारण कुपोषण और बीमारी इनके लिये जानलेवा साबित हो रही है. ऊपर से इलाके में होने वाला औद्योगिकरण की मार इन पर पड़ रही है और इन्हें अपनी जमीन और परंपरागत व्यवसाय से विस्थापित होना पड़ रहा है.

बड़ी खनन कंपनियां इन जनजातियों के रहवासी इलाकों में खनन कर रही हैं और इन आदिवासियों को अपनी जमीन से विस्थापित होना पड़ रहा है. शिक्षा से कोसों दूर होने के कारण इन्हें इन कंपनियों में कोई काम नहीं मिल रहा है. यहां तक कि श्रमिकों के तौर पर भी इन आदिवासियों को इन कंपनियों में काम नहीं मिल रहा क्योंकि अधिकांश कंपनियों में उत्खनन का काम मशीनों से हो रहा है और मानव श्रम के लिये ये कंपनियां बाहरी श्रमिकों पर निर्भर हैं.
                                                  
सरकारी लापरवाही का आलम ये है कि इन दोनों जनजातियों की कुल जनसंख्या 686 की शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य समेत दूसरी मूलभूत सुविधाओं का कोई भी आंकड़ा राज्य सरकार के पास उपलब्ध नहीं है. ऐसे में भला आदिवासियों के विकास की बात कैसे की जा सकती है ? विश्व
आदिवासी दिवस के मौके पर आदिवासियों की अस्मिता, उनके अस्तित्व और उनकी सामाजिक हिस्सेदारी को लेकर बहस की जरूरत है.

रविवार, प्रथम तल, कश्यप कॉम्पलेक्स, इंदू उद्यान चौक, बिलासपुर, छत्तीसगढ़ 495 001