Saturday 28 May 2011

विकास की आंधी में जशपुर के आदिवासी


सुनील शर्मा जशपुर से लौटकर

जशपुर में ईब नदी के किनारे बसे आदिवासी जानते हैं कि अबकी बार इनका सामना चारे की तलाश में भटकते मतवाले हाथियों से नहीं बल्कि औद्योगिक विकास की एक ऐसी अंधी बयार से है जो उन्हें, उनकी संस्कृति और उनका अस्तित्व भी चौपट कर सकता है. गुल्लु में बनने वाले हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्लांट से बिजली कब पैदा होगी यह तो नहीं मालूम लेकिन आदिवासियों के जीवन में अभी से अंधेरा छाने लगा है. छत्तीसगढ़ हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्राइवेट लिमिटेड ने इन्हें जमीन अधिग्रहण का नोटिस क्या भेजा, जैसे इनके रातों की नींद ही लूट ली.


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ऊपर गुल्लु, मतलुंगा, अलोरी डूबेगा तो क्या हम बचेंगे साहब, हम भी डूबेंगे और खेती-बाड़ी की जमीन भी. हमें तो मुआवजा तो दूर नोटिस देना भी जरूरी नहीं समझा गया, हमारी जमीन ली भी जा रही है और कहा भी नहीं जा रहा है कि तुम लोगों की जमीन ले रहे हैं, जैसे यह कोई निर्जन जगह हो, जहां कोई घर नहीं हो, कोई आदमी नहीं हो."

ओरकेला के पटेल (गाँव के मुखिया) भौंचक्के हैं कि आखिर ऐसा कैसे हो सकता है. असल में छत्तीसगढ़ हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्राइवेट लिमिटेड इलाके में बांध बना रही है और कंपनी का दावा है कि इससे केवल 4 गांव प्रभावित होंगे. लेकिन इस बेशर्म झूठ की हकीकत ये है कि कंपनी जो बांध बना रही है, उसमें बांध प्रवाह के दोनों छोर के चार गांवों को तो डूब का इलाका मान रही है और इन गांवों के कुल 38 परिवारों को मुआवजा भी दे रही है लेकिन इन चार गांवों के बीच के गांव, जो अनिवार्य रुप से डूबेंगे, उन गांव के लोगों को मुआवजा कौन कहे, कंपनी ने आज तक नोटिस तक नहीं दी है.

ओरकेला के पटेल पढ़े-लिखे नहीं हैं लेकिन वह अपने खिलाफ हो रहे अन्याय को अच्छी तरह समझते हैं और किसी भी कीमत पर अपनी जमीन नहीं छोडऩा चाहते. वह कहते हैं- यह कहां का न्याय है? खेती-बाड़ी की जमीन पानी में डूब जायेगी तो हम खायेंगे क्या? घर डूबेगा तो रहेंगे कहां ? क्या इसकी चिंता सरकार को है. उसे तो बस आदिवासियों की जमीन चाहिये. पर चिंता मत करिये न सांप मरेगा और न लाठी टूटेगी, न हम जमीन खाली करेंगे और न पावर प्लांट बनने देंगे.’’

पटेल की तरह ही नीचे गुल्लु, मतलुंगा और अलोरी के आदिवासी भी अपनी जमीन किसी भी कीमत पर नहीं देना चाहते. उनका कहना है कि वे यहां से कहीं नहीं जायेंगे, भले ही ईब नदी उन्हें डूबा ही क्यों न दे.

जशुपरनगर से सन्ना रोड पर बाई ओर दुर्गम इलाके में ईब नदी के किनारे बसे ये गांव मनोरा तहसील में आते हैं. इनमें ज्यादातर उरांव जनजाति के लोग रहते हैं, जबकि कुछ कोरवा मांझी परिवार भी इन गांवों में कई पीढिय़ों से रहते आ रहे हैं. इस पूरे इलाके में आदिवासी सघनता से बसे हुए है. जिले में मनोरा ही एकमात्र ऐसी तहसील है, जहाँ अन्य तहसीलों की अपेक्षा सबसे अधिक 79.60 प्रतिशत आदिवासी रहते हैं.

इलाके में रहने वाले इन आदिवासियों के लिये इलाके का जंगल ही इनकी अपनी दुनिया है. जंगल पर इनकी निर्भरता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि नमक, साबून और तेल के अलावा किसी भी खाद्य सामग्री के लिये इन्हें बाजार का मुंह नहीं देखना पड़ता. गांव के एक बुजुर्ग अपनी भाषा में बताते हैं-हमारी उत्पत्ति और पालन में दो ही तत्वों का महत्व है, पहला प्रकृति और दूसरा पितर.

लेकिन इन दोनों पर अब खतरा मंडरा रहा है. हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्लांट बनने के बाद इनके जीवन में एक ऐसा बदलाव आयेगा जो इनके प्रकृति और पितर के संबंधों को पूरी तरह खत्म कर देगा. गुल्लु के पास ईब नदी को बांध कर विद्युत उत्पादन करने वाली योजना कामयाब हुई तो छत्तीसगढ़ के सरप्लस बिजली उत्पादन में 24 मेगावाट का इजाफा हो जायेगा लेकिन इसकी कीमत आदिवासी किस तरह चुकायेंगे इसका अंदाजा कोई नहीं लगाना चाहता.

गुल्लु में प्रस्तावित 24 मेगावाट क्षमता के हाइड्रोइलेक्टिक पावर प्लांट के मूर्त रूप लेने से गुल्लु से लेकर सन्ना तक करीब 30 किमी नदी के किनारे बसे गांव और जमीन हमेशा के लिये डूब जायेंगे. ईब के पानी में आदिवासियों के घरों के साथ ही उनकी खेती-बाड़ी की जमीन और उनकी संस्कृति भी जलमग्न हो जायेगी. नदी के दूसरी ओर का बादलखोल अभयारण भी इस डूब से प्रभावित होगा.

हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्लांट के लिये वैसे तो चार गांव की जमीन लेने की बात कहीं जा रही है. पर वास्तव में इसके लिये तकरीबन 381 वर्ग किमी जमीन अधिग्रहित होगी. इसमें 3.299 हेक्टेयर शासकीय, 24.867 हेक्टेयर निजी और 5.105 हेक्टेयर वन भूमि शामिल है. 131 करोड़ की लागत वाले इस पावर प्लांट के बनने से इस इलाके के 22 गांवों में रहने वाले 1476 परिवारों के 9471 आदिवासी सीधे तौर पर प्रभावित होंगे. संरक्षित वन के भीतर रहने वाले दुर्लभ जीव-जंतु बिजली बनाने के इस उपक्रम की भेंट चढ़ेंगे वह अलग.

आमतौर पर शांत रहने वाले इन गांवों में कंपनी, जनप्रतिनिधि और सरकार के खिलाफ उठ रही विरोधी आवाजों को साफ तौर पर सुना जा सकता है. पेशा एक्ट, वन अधिकार अधिनियम, पांचवीं अनुसूची का पालन तो यहां नहीं हो रहा है पर आदिवासियों पर उनकी जमीन देने दबाव जरूर डाला जा रहा है.

जमीन अधिग्रहण के लिये अलोरी, डूमरटोली, गुल्लु और झरगांव के 38 ग्रामीणों को कंपनी ने नोटिस भिजवायी. आदिवासी शांतिपूर्ण ढंग से अपना जीवन बिता रहे थे लेकिन कंपनी से मिले नोटिस ने उनके रातों की नींद और दिन का चैन छिन लिया. वह दिन भी करीब आ गया जब ग्राम सभा की बैठक होनी थी. इस दिन के बाद उनके जीवन में एक ऐसा बदलाव आया जिसने उनके भीतर डर, आक्रोश, विरोध और घृणा को जन्म दिया. 26 मार्च 2007 को ग्राम डूमरटोली में विशेष ग्राम सभा आयोजित हुई जिसका विषय था छत्तीसगढ़ हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्राइवेट लिमिटेड के लिये आदिवासियों की जमीन का भू-अर्जन. इसके लिये पहले से ही अखबारों में विज्ञापन प्रकाशित करने के साथ ही गांव में इसकी जानकारी दे दी गई थी.

यह एक ऐसी ग्राम सभा थी, जिसके खत्म होते ही इस पूरे इलाके की शांति छिन गई. दोपहर बारह बजे शुरू हुई इस ग्राम सभा में कलेक्टर, एसडीएम, जिला पंचायत अध्यक्ष, जनपद पंचायत अध्यक्ष, सरपंच और सचिव सहित डेढ़ दर्जन अधिकारी मौजूद थे ग्राम सभा की शुरूवात एसडीएम ने की. उन्होंने औपचारिकतावश पंचायती राज अधिनियम के प्रावधानों, ग्रामसभा में पेशा एक्ट की भूमिका के बारे में बताया. पर बकौल ग्रामीण-साहब के जानकारी देने का अंदाज और इस्तेमाल किये गये वाक्य काफी मशीनी थे, जिसे समझना अनपढ़ आदिवासियों के लिये असंभव था. ग्राम सभा के आयोजन के संदर्भ पर कलेक्टर ने प्रकाश डाला.
इसके बाद हाइड्रो पावर कंपनी के एक इंजीनियर ने प्रस्तावित पावर प्लांट के लिये आवश्यक भूमि की गांव वार जानकारी दी. उन्होंने आदिवासियों को अपनी जमीन नि:संकोच कंपनी को देने की बात कहते हुये यह भी भरोसा दिलाया कि उनका घर नहीं डूबेगा. वे सुरक्षित ढंग से रह सकेंगे और बैराज में आने-जाने की सुविधा भी दी जायेगी. नदी के दोनों किनारों पर घाट बनेगा और मुआवजे का भुगतान शासन के आदेशानुसार किया जायेगा.

ग्रामीणों को हाइड्रो पावर प्लांट बनने से होने वाले लाभों के बारे में बताते हुये यह भी कहा गया कि इससे प्रकृति या उन्हें किसी भी तरह का कोई नुकसान नहीं होगा. शेष वक्ताओं का जोर भी केवल इस बात पर था कि ग्रामीण अपनी जमीन हाइड्रो पावर प्लांट के लिये दें. इसके बाद रायशुमारी के लिये अपराह्न चार बजे तक का समय ग्रामीणों को दिया गया.

निर्धारित समय में सभा फिर शुरू हुई और प्रभावित ग्रामीणों को बुला-बुलाकर पूछा गया. जिन ग्रामीणों की जमीन डूब रही थी, उन्होंने जमीन देने से इनकार कर दिया.

शुरूआती दिनों से इन आदिवासियों के लिये संघर्ष कर रही आदिवासी महिला महासंघ की ममता कुजूर बताती हैं- ‘’ ग्राम सभा में 82 ग्रामीणों को उपस्थित होना बताया गया है, जबकि इनकी संख्या आधी भी नहीं थी. अधिकांश हस्ताक्षर जाली है, जिन्हें पढऩा-लिखना नहीं आता उनका भी हस्ताक्षर रजिस्टर में है. कुछ ग्रामीणों के जबरन हस्ताक्षर भी लिये गये. ग्रामसभा में अधिकारियों ने अपनी मर्जी चलाई और ग्रामीणों को मुआवजे का लालच देने के साथ ही जमीन नहीं देने पर शासकीय योजनाओं का लाभ नहीं देने की बात कहकर उन्हें धमकाया भी. अधिकारियों की बात सुनकर ग्रामीण डर गये और अधिकारियों ने हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्लांट के लिये ग्रामीणों की सहमति होने का प्रस्ताव पारित कर दिया गया. ‘’

ममता के अनुसार दूसरे दिन जिला प्रशासन और कंपनी की पहल पर दैनिक अखबारों में यह खबर छपी कि गुल्लु इलाके के ग्रामीणों में हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्लांट को लेकर बेहद उत्साह है और उन्होंने इसके निर्माण को लेकर खुशी-खुशी अपनी जमीन देने की बात कहते हुये ग्राम सभा में प्रस्ताव पारित किया है. कुछ ऐसी ही ग्राम सभा अन्य गांवों में भी हुई और आदिवासी छले गये और उन्हें इसका पता भी नहीं था.

गांव के एक नौजवान बताते हैं- हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्लांट की ओर से अपना घर, पेड़, जमीन और सब कुछ गंवाने वाले प्रभावित ग्रामीणों को महज 43 लाख रूपये बतौर मुआवजा देने की बात कंपनी ने की. आप सोचें कि क्या 22 गांवों की आबादी महज 43 लाख रुपये में अपने जीवन का निर्वाह कर लेगी ?”

हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्लांट की स्थापना और आदिवासियों को बेदखल करने की बात तेजी से पुरे जशपुर में फ़ैल गई. जिले के तपकरा, कुनकुरी सहित कुछ अन्य इलाकों में आदिवासियों के विस्थापन के विरोध में पहले से कार्य कर रहे आदिवासी महिला महासंघ को जब इस मामले की जानकारी हुई तो उसने आदिवासियों को जागरूक करने का बीड़ा उठाया और उन्हें उनके अधिकारों के प्रति सजग किया. वन अधिकार अधिनियम 2006 , पेशा कानून के साथ ही पांचवीं अनुसूची में दिये गये प्रावधानों की बारीकियां बताई. इसके बाद आदिवासियों ने विस्थापन का विरोध करने कमर कस ली.

ममता बताती हैं – "गांववालों को तो कुछ भी मालूम नहीं था, उन्हें तो यह भी नहीं पता था कि पावर प्लांट बनने के बाद उनकी जमीन नहीं बचेगी. लेकिन जब वे अपने अधिकार के लिये जागे तो कंपनी का विरोध भी आदिवासियों के दमन का कारण बन रहा है. पिछले कुछ सालों में आदिवासियों को जागरूक करने वाले 88 सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज कर दिये गये है. उन सब पर आरोप है कि वे आदिवासियों को कंपनी के खिलाफ भडक़ा रहे हैं और शासकीय कार्य में रूकावट डाल रहे हैं.’’

जब कंपनी के साथ सरकारी नुमाइंदे उनके एजेंट की भूमिका में हों तो लड़ाई कमजोर पड़ती ही है. एक तरफ तो आदिवासियों पर मुकदमे किये गये, उन्हें धमकी दी गई वहीं दूसरी ओर लोगों को यह कहा गया कि अगर वे मुआवजा नहीं लेंगे तो सरकार जबरजस्ती जमीन पर कब्जा कर लेगी और फिर मुआवजा भी नहीं मिलेगा. इन गांवों के आदिवासी पड़ोसी जिले रायगढ़ में सरकार की दलालों जैसी भूमिका से अनजान नहीं थे. ऐसे में प्रभावित गांवों के कई परिवारों ने कंपनी का मुआवजा स्वीकार कर लिया. कंपनी द्वारा घोषित 38 प्रभावित परिवारों में से 20 परिवारों ने मुआवजा ले लिया.

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अगस्त 2008 को मुआवजे की राशि घोषित की गई जिसके मुताबिक 38 प्रभावितों की 43 लाख 43 हजार 208 रुपए का अवार्ड हुआ. इसमें 20 लोगों को 24 लाख, 7 हजार 695 रुपए का चेक दे दिया गया जबकि 18 प्रभावितों को 19 लाख 34 हजार 513 रुपए मुआवजे की राशि कंपनी देना तो चाहती है लेकिन वे तैयार नहीं है.

गांव के बुजर्ग बताते हैं कि आदिवासियों की जमीन अभी भी संयुक्त रूप से हैं. कोई एक खातेदार नहीं है, यही कारण है कि माँ-बाप लड़ाई लड़ रहे हैं और उनके बेटे जो जवान हैं, उन्हें लालच देकर पर मुआवजे का चेक थमा दिया गया है. हालांकि 18 परिवारों ने मुआवजा लेने से साफ तौर पर इनकार कर दिया. अब स्थिति यह है कि जिन्होंने मुआवजा लिया है वे भी अपनी जमीन नहीं देना चाहते. वैसे असली आंकड़ों को देखें तो 22 गांवों में से कुल 20 लोगों को ही आज की तारीख तक मुआवजा मिला है. यानी प्रत्येक गांव से औसतन एक आदमी है, जिसे कंपनी ने प्रभावित मान कर मुआवजे की रकम थमायी है.

ऐसा नहीं है कि आदिवासियों ने अपनी जमीन बचाने के लिये कुछ नहीं किया, वे निरंतर संघर्ष करते रहे हैं. जशपुरनगर आने से डरने वाले आदिवासियों ने राजधानी रायपुर जाकर भी अपना विरोध जताया. सामाजिक कार्यकर्ता और ममता की सहयोगी मालती तिर्की बताती है कि बीते तीन-चार सालों में आदिवासियों ने अपनी जमीन बचाने के लिये कड़ा संघर्ष किया है. ज्ञापन,शिकायत,धरना-प्रदर्शन, रैली इतने हुये कि इन्हें गिनना मुश्किल है.
आदिवासी महिला महासंघ की मालती तिर्की आंकड़े और लड़ाई की कहानी मुंहजबानी बताना शुरु करती हैं. चार मई 2007 को ग्रामीणों ने अतिरिक्त तहसीलदार मनोरा को पत्र लिखा जिसमें छत्तीसगढ़ हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्राइवेट लिमिटेड द्वारा अखबारों में प्रकाशित ईश्तहार पर आपत्ति जताई. पत्र में पावर प्लांट बनने से होने वाली प्राकृतिक क्षति की आशंका जताई गई और कंपनी पर शासकीय बल का दुरुपयोग करते हुये ग्रामीणों को भ्रमित करने का आरोप लगाया.

इसके चार दिन बाद 8 मई को आदिवासियों ने जशपुरनगर में विशाल रैली निकाली और कलेक्टर को ज्ञापन सौंपा. जिसमें ग्राम सभा की दोबारा बैठक बुलाने, पावर प्लांट की डिजाइन से उन्हें अवगत कराने, विश्वस्त विशेषज्ञों से निर्माण संबंधी चर्चा कर ग्रामीणों के लिये किये जाने वाले विकास कार्य की स्पष्ट जानकारी, विस्थापितों की पुर्नस्थापना की कार्ययोजना बनाने जैसी मांगे रखी. पावर प्लांट के मद्देनजर हो रही जंगल की कटाई का विरोध करते हुये ग्रामीणों ने कलेक्टर को पत्र लिखा. जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि ग्राम सभा में उन्होंने पावर प्लांट के लिये सहमति नहीं दी है, इसलिए तत्काल कूप कटाई पर रोक लगाई जाये. 31 जुलाई को एक बार फिर कलेक्टर को पत्र लिखकर ग्राम पंचायत अलोरी में हुई ग्रामसभा को अवैध बताया और दोबारा ग्राम सभा कराने की मांग की. ग्रामीणों ने रजिस्टर में फर्जी हस्ताक्षर करने की शिकायत भी की.

मालती के अनुसार अधिकारियों से मायूसी हाथ लगने पर ग्रामीणों ने जनप्रतिनिधियों का दरवाजा खटखटाया. चार जून 2008 को महिला एवं बाल विकास मंत्री लता उसेंडी को ज्ञापन सौंपकर बिजली उत्पादन के लिये जमीन देने से इनकार कर दिया. उन्होंने आदिवासियों को अमन-चैन का जीवन जीने देने की गुजारिश भी की. वर्ष 2009 में गुल्लु के ग्रामीणों ने राज्यसभा सांसद दिलीप सिंह जुदेव से मिलकर उन्हें अपनी समस्या बताई. उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखने का वायदा किया, पत्र लिखा भी पर प्रधानमंत्री कार्यालय से कभी जवाब नहीं आया.

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नवंबर 2009 में ग्राम सुराज अभियान का शिविर लगा तो ग्रामीणों ने एक बार फिर ग्राम सभा को लेकर शिकायत की लेकिन अपने आला अधिकारियों द्वारा पारित प्रस्ताव वाले ग्राम सभा को निरस्त करना सुराज अभियान के अधिकारियों के लिये संभव नहीं था. लिहाजा ग्रामीणों से आवेदन लेकर समस्या निवारण का कभी न पूरा होने वाला वादा कर दिया गया और एक बार फिर आदिवासी छले गये.

ग्रामीणों ने 10 फरवरी 2009 कुनकुरी,20 फरवरी 2009 खरवाटोली, 13 जून 2009 जशपुर, 6 अक्टूबर 2009 रायपुर, 20 अक्टूबर 2009 बगीचा, 16 दिसंबर 2009 खरवाटोली, 9 अप्रैल 2010 मनोरा,8 जुलाई 2010 सहित कई विरोध रैलियों, जनसभाओं और जागरूकता शिविरों में बड़ी संख्या में शामिल होकर जशपुर में आदिवासियों को विस्थापित करने पर विरोध जताया.

मूल निवासी मुक्ति मोर्चा के चीफ को-आर्डिनेटर डा. आस्कर एस.तिर्की विस्थापन के विरोध में लगातार आदिवासियों को संगठित करने का कार्य कर रहे हैं. वे कहते हैं कि "पूरे जशपुर में आदिवासी अपनी जमीन बचाने के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं तो कंपनी के अधिकारी, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी बार-बार उनके पास जाकर जमीन देने दबाव डाल रहे हैं. सीधी सी बात लोगों की समझ में क्यों नहीं आती कि आदिवासियों का जीवन जल,जंगल और जमीन के बिना मुश्किल है. उनका विस्थापन उचित नहीं है. ये सामुदायिक जीवन जीते हैं, आदिवासियों की संस्कृति वहीं फल-फूल सकती है जहां वे मूलत: निवास करते हैं.’’

आदिवासियों को इस लड़ाई में आर्थिक समस्याओं का सामना भी करना पड़ रहा है. जंगल पर निर्भर उनकी अर्थव्यवस्था उन्हें इस बात की इजाजत नहीं देती कि वे इस तरह की लड़ाई लड़ें, जिससे उनका रोज का काम प्रभावित हो और आर्थिक रुप से भी नुकसान उठाना पड़े. एक आदिवासी अगर किसी रैली में, धरना में या कलेक्टर को ज्ञापन सौंपने भी जाता है तो उसकी उस दिन की रोजी मारी जाती है, उपर से आने-जाने, खाने-पीने में खर्च का दोहरा भार भी उन्हें उठाना पड़ता है.

नौ साल पहले नदी के उस पार से गुल्लु में आकर बसे अलेक्जेंडर मिंज को अब भूख कम ही लगती है. उसे रात में नींद भी नहीं आती. उसे दिन-रात एक ही चिंता सताती है कि यदि उसकी जमीन चली गई तो उसके परिवार का क्या होगा? पावर प्लांट के लिये बनने वाले इस बांध से कई आदिवासियों के साथ ही उसकी भी पूरी तीन एकड़ जमीन डूब जायेगी. पहले दिन से ही वह अपने अन्य साथियों के साथ अपनी जमीन बचाने के लिये संघर्ष कर रहा है. इस बीच वह निराश और हताश भी हुआ लेकिन उसने हार नहीं मानी है.

अलेक्जेंडर बताते हैं- "कई बार अधिकारी, पुलिस और कंपनी के आदमी आकर जमीन देने के लिये दबाव डालते हैं, धमकी देते हैं लेकिन पूछने पर ये नहीं बताते कि अगर जमीन दे दी तो मेरा और मेरे परिवार का क्या होगा? हम कहां जायेंगे? खेती की जमीन ही नहीं रहेगी तो घर पर रहकर क्या करेंगे और जहां खेत डूबेगा तो घर थोड़े ही बचेगा. रायगढ़ सहित तमाम जगहों पर कंपनी ने क्या किया यह बात किसी से छिपी नहीं है. वैसे भी कंपनी जिनकी जमीन लेती है, उनके साथ कभी न्याय नहीं होता तो हमारे साथ क्या न्याय होगा?"

ग्रामीण विकास केंद्र की सिस्टर सेवती पन्ना पिछले दस सालों से जशपुर में मानव व्यापार, आदिवासियों के विस्थापन के खिलाफ आवाज उठा रही है. वह कहती है- "विकल्प शब्द मन में आशा जगाता है पर जिनके पास विकल्प नहीं है वे क्या करें ? विकल्प का अभाव वर्तमान व्यवस्था के प्रति मन में घृणा पैदा करता है और यहीं भाव मनुष्य को विरोध के लिये उकसाता है. व्यवस्था के खिलाफ शुरू होने वाला संघर्ष न तो आसान होता और न ही मामूली. आदिवासियों के पास व्यवस्था के खिलाफ लडऩे के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. गुल्लु में उद्योगपति, जनप्रतिनिधि और राज्य सरकार औद्योगिक विकास की आड़ में उन्हें उनकी ही जमीन से बेदखल करने का मन बना चुके हैं और आदिवासी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये लड़ाई लडऩे विवश है. वर्तमान व्यवस्था ने उन पर अनचाहे ही लड़ाई थोप दी है जिसका सामना वे संगठित होकर कर रहे हैं. उन्हें स्थानीय जनप्रतिनिधियों पर नहीं बल्कि लोकतंत्र पर भरोसा है, उद्योगपतियों से मिले दलालों पर नहीं वरन् खुद पर विश्वास है और जिस प्रकृति की रक्षा के लिये वे संघर्षरत है उस पर गहरी आस्था. औद्योगिक विकास की अंधी बयार ने जशपुर के आदिवासियों के लिये विकल्प के सारे रास्ते बंद कर दिये है.’’
मालती की सहयोगी सुषमा बांध बनने के बाद की स्थितियों को लेकर आशंकित हैं. उनका सीधा सा तर्क है कि बांध बनने के बाद तीस किलोमीटर तक की आबादी तो सीधे तौर पर प्रभावित होगी ही, नीचे के सैकड़ों गांव, जो पानी की जरुरत के लिये ईब नदी पर ही आश्रित हैं, उनका क्या होगा ?

गुल्लु में जो चार कोरवा मांझी परिवार रहता है, उसमें एक परिवार दुबाराम का भी है जो किसी तरह दो एकड़ कृषि भूमि में खेती-बाड़ी कर जीवन-यापन करता है. छिट-पुट खर्च के लिये उसका परिवार सुअर भी पालता हैं. जब से हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्लांट लगने की जानकारी उसे हुई है उसका तो जैसे भगवान पर से विश्वास ही उठ गया है. वह अपने परिवार के साथ किसी तरह जीवन काट रहा था लेकिन अब उसे यहीं डर सताता है कि अगर जमीन चली गई तो छोटे-छोटे बच्चों का क्या होगा ? 70 वर्षीय दुबाराम अपने जीर्ण हो चुके शरीर को एकबारगी देखता है, फिर कहता है-"जमीन नईये देब हमें, देबे नई करई, काहे देब. कई पीढ़ी बीत गेला, कईसे देब, पुरखा मनके धरन जमीन, छुआ मन ल छोडक़े कहां जाब, हमें देबे नई करई.’’

हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्लांट के लिये गुल्लु के ही रहने वाले मार्शल खलखो को भी नोटिस मिला है. उसकी महज 9 डिस्मिल जमीन ही अधिग्रहित होगी लेकिन उन्हें जमीन से ज्यादा अपने लोगों की चिंता है तभी तो संघर्ष करने में कभी पीछे नहीं रहते. उन्हें मुआवजा लेने के लिये तीन बार नोटिस मिला पर वह नहीं गये. वह अन्य साथियों को भी मुआवजा नहीं लेने की सलाह देते है 50 वर्षीय मार्शल कहते हैं कि "यहां से किसी को भी जाने की जरूरत नहीं है. आदिवासी की जमीन कोई भी जबरन नहीं ले सकता. गांववालों को बिजली देने की बात कहकर कंपनी गुमराह कर रही है, पर हमें बिजली नहीं जमीन चाहिये. अंधेरे में तो हम रह सकते हैं पर भूखे पेट नहीं.’’

जशपुर के रहने वाले छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के युवा अधिवक्ता एल्वन टोप्पो बहुत साफगोई से बात करते हैं. टोप्पो कहते हैं- आदिवासियों की जनसंख्या लगातार क्यों कम हो रही है, इसका सही-सही जवाब कोई नहीं देना चाहता.लेकिन आंकड़े बहुत साफ-साफ सारी कहानी कह जाते हैं. देश में साढे आठ करोड सूचीबद्ध आदिवासी हैं, जबकि ढाई करोड़ गैर सूचीबद्ध यानी 'डिनोटीफाइड' आदिवासी हैं. इस तरह आप देखें तो पता चलता है कि प्रत्येक दस में से एक आदिवासी विस्थापित है. पिछले दस-बारह सालों के आंकड़े देखें तो अलग-अलग तरह की औद्योगिक परियोजनाओं में छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में 14 लाख लोग विस्थापित हुये और इनमें आदिवासियों की संख्या 79 प्रतिशत है. दुखद ये है कि इनमें से 66 प्रतिशत का पुनर्वास सरकार ने आज तक नहीं किया.

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय की अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज पिछले कई सालों से राज्य में मजदूरों और आदिवासियों के विस्थापन के मुद्दे पर सक्रिय हैं. वे कहती हैं- जशपुर आदिवासियों पर उद्योग और सरकार के दमन का प्रतीक बन गया है. जिस गैरकानूनी और अमानवीय तरीके से आदिवासियों के विस्थापन की साजिश रची जा रही है, उससे लगता ही नहीं कि जनता की चुनी हुई सरकार, एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में यह सब कुछ कर रही है. यह सब होने के बाद भी आदिवासियों ने हार नहीं मानी है और इन 22 गांवों के लोग अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं.

लेकिन इस तरह की किसी भी लड़ाई को नजरअंदाज करती हुई छत्तीसगढ़ हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्राइवेट लिमिटेड 2010 की वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि कंपनी को जशपुर जिले के गुल्लु गाँव में 24 मेगावाट की लघु जलविद्युत परियोजना स्थापित करने की सभी सांविधिक मंजूरियां प्राप्त हो चुकी हैं. पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, नई दिल्ली और भोपाल से वन मंजूरी भी मिल गई है जबकि चालू वर्ष में अंतिम वन मंजूरी की उम्मीद है. बैंकों से ऋण के लिए बैंकरों के साथ बातचीत चल रही हैं. परियोजना की डिजाइन और इंजीनियरिंग का काम हो रहा हैं. निविदा आमंत्रित करने दस्तावेज तैयार किये जा रहे हैं. भूमि अधिग्रहण प्रगति पर है. निजी भूमि के अधिग्रहण के लिए जशपुर कलेक्टर के पास मुआवजे की राशि जमा की जा चुकी है. भूमि मालिकों को मुआवजे का वितरण किया जा रहा है.

कंपनी की तरह सरकार भी आदिवासियों की ज़रुरतों के बजाये कंपनी की चाकरी में लगी हुई है. इस बात को गुल्लू के इलाके में बनने वाली सड़क के एक उदाहरण से समझा जा सकता है.

जशपुर-बगीचा मार्ग पर नीरव घाटी (घाघरा) से गुल्लु की दूरी 16 किमी है. महज कुछ समय पहले तक यहां जाने के लिये कच्ची सडक़ भी नहीं थी लेकिन अब पक्की सडक़ बनाई जा रही है. पटिया, अलोरी या गुल्लु जाने के लिये घाघरा से पैदल ही जाना पड़ता था क्योंकि मार्ग ऐसा भी नहीं था कि जिसमें दोपहिया वाहन चल सके. गांव वालों ने सैकड़ों बार सरकारी अधिकारियों को इस इलाके में कच्ची सड़के के लिये निवेदन किया लेकिन सरकारी अफसरों ने कभी उनकी नहीं सुनी. अब सरकारी अधिकारियों का यह रव्वैया उन्हें हैरान करने वाला लगता है. गांववालों का कहना है कि प्रस्तावित गुल्लु हाइड्रो पावर प्लांट के मद्देनजर बड़ी ही तेजी से सडक़ निर्माण किया जा रहा है ताकि कंपनी के अधिकारियों-कर्मचारियों को यातायात में असुविधा न हो.

लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि जिन आदिवासियों के विकास नाम पर छत्तीसगढ़ अलग राज्य बनाया गया, उस राज्य में इस तरह की सड़कें विकास की किस मंजिल तक पहुंचेंगी ?
(रविवार डाट काम में प्रकाशित)